द्वैत अनुभूति
शिक्षण-विधि-सोपान
द्वैत अनुभूति मन ही दो भागो में विभक्ति करके, इदं और अहं बन जाता है । इदं शब्द में, अहं के अतिरिक्त जितना कुछ है, सभी आवृत्त है । यद्यपि कि इदं शब्द का
शाब्दिक अर्थ “यह” मात्र है । परन्तु शास्त्रों में प्रयुक्त इदं का अर्थ अहं से
भिन्न जितना भी जीव-जगत् है और जितना भी जड-जगत् है सभी समाहित है । जब व्यक्ति
अहं के अर्थ में अहंकार को जानता है, तब इदं एक सत्य संसार होता है । ज्ञान की
स्थिति में, अहं का अर्थ आत्मा होता है, तब इदं एक मिथ्या अनुभूति मात्र है । उपरोक्त भेद माया की लीला है । माया
सत्य को आवृत्त करती है, और फिर जो नहीं है उसकी अनुभूति कराती है
। यह समष्टि का चित्रण है । व्यष्टि के प्रकरण में, निद्रा-शक्ति
व्यक्ति के जागृत-दशा को आवृत्त करती है, पुन: मिथ्या स्वप्न की अनुभूति कराती है
। जिस प्रकार व्यक्ति निद्रा समाप्त होने पर स्वप्न की अनुभूतियों को मिथ्या अनुभव
करता है, उसी प्रकार आत्म-ज्ञान की दशा में, यह व्यवहार लोक जगत् केवल नाम-रूप मात्र रह जाता है । इस जगत् का
सत्यत्व आत्मा है, जो कि जड प्रपंचों में अपने सत् अंश को
व्यक्त करता है और जीव प्रपंचों में अपने चित् अंश की अभिव्यक्ति करता है । जड
प्रपंचों की सत्ता उनके रूपों से आवृत्त रहती है, और चेतन जीव का
चैतन्य उसके अहंकार से आवृत्त रहती है । उपरोक्त स्थिति का विमोचन शास्त्र द्वारा
सम्भव होता है । यह क्षमता केवल मनुष्य देह में प्रकृति प्रदत्त है, कि वह शास्त्र-प्रमाण द्वारा आत्मा के अनन्तत्व का ज्ञान बोध कर सके और
आनन्द की स्थिति को प्राप्त कर सकता है । इसलिये ही मनुष्य योनि का जीवन
देव-दुर्लभ कहा जाता है । मोक्ष पुरोषार्थ ही, प्रत्येक मनुष्य के जीवन का निर्धारित
लक्ष्य बताया गया है । जो व्यक्ति इस पुरुषार्थ में संलग्न नहीं हुआ, उसने अति अपरिमित क्षति किया है । ..... क्रमश:
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