निरुपाधिक आत्मदेव


शिक्षण-विधि-सोपान
निरुपाधिक आत्मदेव आत्मा की कोई उपाधि नहीं होती है । आत्मा निरुपाधिक है । परन्तु विशुद्ध आत्म-चैतन्य का उपदेश करने के लिये शास्त्र और गुरू जिज्ञासु को समझने के लिये तीन उपाधियाँ नामत: एक- ज्ञान, दो- स्फुरण, तीन- आनन्द को जोडकर आत्मा का उपदेश करते हैं । उपरोक्त तथ्य को प्रारम्भ में ही इसलिये बताना पडता है, कि उपरोक्त उपाधियों को जिज्ञासु कहीं आत्मा की उपाधि न मान बैठे । उपरोक्त कथित उपदेश में प्रयुक्त उपाधियों का विस्तार इस प्रकार है । आत्म-चैतन्य जब मस्तिष्क में प्रगट होता है, तब मस्तिष्क को विषय-रूप-ज्ञान सम्भव होता है । मस्तिष्क में व्याप्त जड विषय वृत्तियाँ  विषय-ज्ञान-बोध में पर्णित हो जाती है । लोक-व्यवहार का यही ज्ञान है । आत्म-चैतन्य मस्तिष्क से विस्तृत होकर ज्ञानेन्द्रियों पर्यन्त और फिर विषय वस्तु पर्यन्त बेध करता है, जिसके फल से विषय भासित होता है, इस समस्त प्रक्रिया को स्फुरण कहा जाता है । आत्म-चैतन्य स्मृति में संचित पाप-पुण्य-रूपी वासना वृत्तियों में जब वेध करता है, तो इसके फल से मस्तिष्क में हर्ष अथवा विषाद का बोध यथा वृत्ति होता है, इसे आनन्द कहा जाता है । परन्तु पुन: बताया जा रहा है कि यह आत्मा की उपाधियाँ नहीं हैं, अपितु आत्म-चैतंन्य के विभिन्न वेध के फल सृजित होने वाले भिन्न भिन्न फलों का ज्ञान कराने के लिये उपरोक्त उपाधियों का प्रयोग किया जाता है । आत्मा सदैव निरुपाधिक है । ...... क्रमश:   

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