दृष्टान्त
शिक्षण-विधि-सोपान
दृष्टान्त
दर्पण के सामने जो होगा, दर्पण उसकी क्षवि दर्शायेगा, यह दर्पण का स्वभाव है । दर्पण में क्षवि की अभिव्यक्ति मात्र है । उस
क्षवि से दर्पण पूर्णतया असंग होता है । सामने की वस्तु हट गयी, फिरभी दर्पण को कोई अन्तर नहीं होता है । मस्तिष्क में आत्मा की केवल
अभिव्यक्ति मात्र है । यह अभिव्यक्ति ही विभक्त होकर अहंकार और विषय-वस्तु बन जाते
हैं । कैसे ? वस्तुरूपबोध व्यक्ति को होता है, इस बोध में दो भाग हैं एक- यह वस्तुरूप है और दो- यह वस्तुरूप मैं नहीं
हूँ, द्वैत सृजित हो गया, वस्तुरूप द्वैत का पहला पक्ष और मैं(अहंकार) द्वैत का दूसरा पक्ष है । यही
विषय-विषयी का द्वैत है । इस द्वैत के दोनो अवयव विषय और विषयी दोनो मिथ्या हैं ।
मिथ्या की परिभाषा की जाती है, जो है नहीं उसकी अनुभूति को मिथ्या कहा
जाता है । दर्पण में जनित प्रतिबिम्ब का क्या कोई अस्तित्व होता है । उपरोक्त कथित
आत्मा की अभिव्यक्ति को सत्य की मान्यता ही, देहात्मभाव है । यह भाव ही व्यक्ति को
अपनी आत्मा से दूर कर देता है । आत्मा अद्वय तत्व है । द्वैत दर्शन भ्रामक है ।
परन्तु सम्पूर्ण लोकव्यवहार इसी अहंकार से संचालित है । ज्ञान के अधिकरण में न ही
कोई जन्म है और इसलिये मृत्यु का प्रश्न ही नहीं है । देहात्मभाव से ही जगत् की
सत्यता है । दर्पण में दीखने वाली क्षवि केवल अनुभूति मात्र है, उसका कोई अस्तित्व नहीं है यही स्थिति अहंकार की है । इस अहंकार को
खोजिये तो इसकी कहीं स्थिति मिलती नहीं है, यदि कहीं होगा तब न मिलेगा, यह मात्र अनुभूति है । जीवन केवल आत्मा की अभिव्यक्ति है । समस्त
परिवर्तन जागृत-दशा, स्वप्न-दशा, सुशुप्तिदशा अपरिवर्तनीय आत्मा के सामने आते हैं जाते हैं, आत्मा इन तीनों से पूर्णतया अस्पर्ष है । जागृतदशा और स्वप्नदशा में
अनुभूतियां है, सुशुप्ति में अनुभूतियों का आभाव होता है, आत्मा उपरोक्त कथित भाव और अभाव दोनो से विलक्षण है । मस्तिष्क
क्रियाकारी होता है जगत् उपस्थित हो जाता है, मस्तिष्क सुशुप्ति में लय कर जाता है, जगत् समाप्त हो जाता है । जब तक संसार है,
देश-काल-कार्य-कारण है । यह माया लोक है । ..... क्रमश:
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