द्वैत का विज्ञान
शिक्षण-विधि-सोपान
द्वैत का विज्ञान जिस प्रकार हिरण्यगर्भ ने रयि-प्राण के युगलों का सृजन करके अपने को सम्पूर्ण
जगत् के रूप में विस्तृत किया है, उसी प्रकार जीव का मन द्वैत के जुगल द्वारा
भोक्ता और भोज्य का सृजन करता है । मन ही विभक्त होकर विषय और विषयी बंनता है । विषयी
अहंकार की स्थिति उसी प्रकार होती है जिस प्रकार दर्पण में सृजित होने वाली क्षवि की
होती है । क्षवि अनुभूति होती है, परन्तु वह होती नहीं है । उसी प्रकार अहंकार
का कोई अस्तित्व नहीं होता है । स्थूल देह के सत्यत्व की मान्यता द्वारा ही अहंकार
का जन्म होता है । यह अहंकार विषय वस्तु के नाम-रूप के आहार से पुष्ट और पोषित होता
है । छ: भयों का सृजन होता है, दो स्थूल देह से सम्बन्धित वृद्धा अवस्था, और मृत्यु, दो सूक्ष्म-शरीर से सम्बन्धित भूख और प्यास, दो मन से सम्बन्धित शोक और मोंह होते हैं । इन्ही छ: भयों का निदान के पुरुषार्थ
में प्रत्येक का सम्पूर्ण जीवन व्यवहार करता है । उपरोक्त समस्त त्रासदाओं का माया-कल्पित
विस्तार है । उपरोक्त में समस्त अवयव मिथ्या हैं । जिनकी केवल अनुभूतियाँ होती हैं, परन्तु वह होते नहीं हैं । यह माया का विज्ञान है । ..... क्रमश:
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