विषय और विषयी
शिक्षण-विधि-सोपान
विषय और विषयी यह फैला हुआ माया-कल्पित-जगत् विषय है । इस जगत् का अनुभव करने वाला जीव
विषयी है । जीव आत्मा के आश्रय से विषयों का अनुभव-कर्ता बनता है । जड जगत् और
चेतन जीव में अन्तर क्या है ? जड को न तो अपना ज्ञान होता है, और नही दूसरे का ज्ञान होता है । चेतन को अपना भी ज्ञान होता है, और दूसरों का भी ज्ञान होता है । चेतन जीव अपनी ज्ञान क्षमता के कारण ही
विषयों का भोक्ता होता है । परन्तु इसी स्थल पर एक बडे मर्म को समझने की आवश्यकता
है । आत्मा ज्ञान स्वरूप है । वह किसी भी व्यवहार में सम्मलित नहीं होती है ।
प्रश्न उठता है कि फिर यह विषयी कौन है ? उत्तर है, कि यह विषय जो
भोक्ता है, वह माया-कल्पित-मैं है जो कि आत्मा नहीं
है, वह अहंकार है । विषय क्या हैं ? विषय की परिभाषा की जाती है, कि जो आत्मा को बाँधता है, वह विषय हैं । यह अति अद्भुद लीला है ।
जो इस मर्म को समझ जायेगा उसे ज्ञान साधना सरल हो जायेगी । विषय सम्मुख होने पर
जीव की इन्द्रियां विषय-ज्ञान मस्तिष्क को कराती हैं । माया-कल्पित-मस्तिष्क जो
आत्मा के शाश्वत् चैतन्य से प्रकाशित है, उसी मस्तिष्क में विद्यमान उपरोक्त कथित
अहंकार उस विषय ज्ञान के साथ तादात्म्य करके, उसमें प्रियता अथवा अ-प्रियता की कल्पना
बना लेता है । उपरोक्त विवरण में, विषय का ज्ञान आहरण इन्द्री का धर्म है, और उक्त ज्ञान में प्रियता और अ-प्रियता का सृजन मस्तिष्क का धर्म है, परन्तु अहंकार विषयी बडी सक्षमता से उपरोक्त कथित प्रियता अथवा
अ-प्रियता को महत्व प्रदान करता है, राग अथवा द्वेष की उत्पत्ति हो गई ।
उपरोक्त समस्त किसने किया ? क्या आत्मा ने किया ? नहीं उस विलक्षण धर्मी अहंकार ने किया । यह अहंकार ऐसा धर्मी है जो कभी
इन्द्रियों से तादात्म्य करता है, तो कभी मस्तिष्क से तादात्म्य करता है, तो कभी संकल्प का रूप धारण कर लेता है, तो कभी इच्छा का
रूप धारण कर लेता है । विषय स्मृति-रूपा होते हैं, अर्थात् जब सामने
होते हैं तो उपरोक्त विवरण के अनुसार बाँधते है, और जब सामने नहीं
होते हैं, तो याद दिला दिला कर सताते है । स्मरणीय
है, कि मस्तिष्क के चार प्रभाग पूर्व के लेखों में बताये गये थे, नामत: मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार हैं । यह मस्तिष्क माया-कल्पित है । माया
शक्ति सारा खेल इसी में सृजित करती है । आत्मा उपरोक्त समस्त खेल से पूर्णतया
अ-स्पर्ष होती है । उपरोक्त वर्णित सारा खेल ही लोक-व्यवहार है । पाप और पुण्य का
उदय इन्ही से होता है । जन्म और मृत्यु का चक्र उपरोक्त से ही सृजित होता है । माया
शक्ति कितनी कुशलता से अनन्त-आनन्द-स्वरूप-आत्मा को, एक तुच्छ परिछिन्न
जीव के रूप में पर्णित करके इस सन्सार का नाटक सम्पादित कर रही है । शास्त्र उपदेश
इस परिच्छिन्न त्रासदाओं को भोगने वाले जीव को दिशा देते हैं कि अपने स्वरूप को
जानो और अपने आत्म-स्वरूप में जीवन-यापन करो, तो तुम समस्त त्रासदाओं से मुक्त हो
जाओगे क्योंकि तुम सदैव से नित्य-शुद्ध-बुद्ध-आनन्द-स्वरूप हो तुम अपने स्वरूप के
अज्ञान मात्र से यह सान्सारिक जीव बनकर सारी त्रासदाओं को भोग कर रहे हैं ।
....... क्रमश:
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