संदेश

अक्टूबर, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सर्वोच्च उपलब्धि

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सर्वोच्च उपलब्धि वर्तमान प्रकरण में सर्वोच्च उपलब्धि सूर्य-देवता है । कर्म-उपासना की सर्वोच्च उपलब्धि हिरण्यगर्भ है । यह क्रमिक मुक्ति का पथ है । यह गुणात्मिका माया लोक का ही अंश भाग है । ज्ञान मायातीत है । मुक्ति मायातीत है । माया का विस्तार अति विस्तृत है । गुणों के माध्यम से माया की पकड अति सशक्त है । हिरण्यगर्भ-लोक की प्राप्ति के उपरान्त भी , पुण्य के क्षीण होने पर पुन: भू-लोक में जन्म होता है । इसलिये शास्त्र उपदेश सदैव श्रेय: पुरुषार्थ की ही अनुशंसा करते हैं । ....... क्रमश:  

ब्रम्हचर्य

माया-कल्पित-जगत्-सोपान ब्रम्हचर्य ईन्द्रीय नियन्त्रण और ब्रम्हचारी ब्रत का पालन ब्रम्हचर्य है । तप साधना के लिये ब्रम्हचर्य अनिवार्य वाँक्षना है । उपासन , जो कि मानसिक कर्म है , तप की सात्विकता और ब्रम्हचर्य के सम्बल से ही सफल फलदायी स्थिति को प्राप्त होता है । उपलब्धि ब्रम्ह-लोक की प्राप्ति होती है । निष्चय ही यह इस माया-कल्पित-जगत् के लिये सर्वोच्च उपलब्धि है , परन्तु फिरभी अपरा विद्या है । उपरोक्त उपलब्धि से मुक्ति नहीं है । ..... क्रमश:  

तप:

माया-कल्पित-जगत्-सोपान तप: उपासना को तप द्वारा करने के फल से सूर्य लोक की प्राप्ति का फल बताया गया है । तप , सात्विकता के चर्मोत्कर्ष स्थिति को प्राप्त करना तप है । तप और उपासना दोनो साथ साथ करना ही फलदायी होता है । केवल तप अथवा केवल उपासना दोनो ही अपूर्ण हैं । परन्तु तप सहित उपासना सार्थक प्रयन्त है । फल के रूप में ब्रम्ह-लोक की उपलब्धि होती है । ..... क्रमश:

सूर्य-लोक देव-लोक ब्रम्ह-लोक

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सूर्य-लोक देव-लोक ब्रम्ह-लोक लोको के विचार में ब्रम्ह-लोक सर्वोच्च सम्पन्न लोक है । यह हिरण्यगर्भ का लोक है । इसे सत्य-लोक भी कहा जाता है । क्रमिक मुक्ति के विचार में जिन पुण्यवान जीवों को ब्रम्ह-लोक प्राप्त हो जाता है वह ब्रम्ह-लोक में दीर्घ आयु का भोग करते हुये , हिरण्यगर्भ के शिक्षा के प्रसाद से उन्हे ज्ञान की प्राप्ति होती है जिसके फल से वह मोक्ष की दशा को प्राप्त होते है । सूर्य-लोक की प्राप्ति किसी जीव की कर्म-उपासना-समुच्चय द्वारा सर्वोच्च उपलब्धि होती है । ...... क्रमह:

चन्द्र-लोक पितृ-लोक स्वर्ग-लोक

माया-कल्पित-जगत्-सोपान चन्द्र-लोक पितृ-लोक स्वर्ग-लोक भू-लोक से अधिक सम्पन्न परिस्थितियों का लोक स्वर्ग-लोक , पुण्यवान लोगो को मरणों-परान्त , उनके संचित पुण्य-फलों के भोग के लिये मिलता है । इस स्थल पर ज्ञातव्य है कि शास्त्रों में चौदह-लोकों का वर्णन है । यह सभी सापेक्ष रूप से उत्तरोत्तर उत्तम हैं । कर्म-फलों के भोग के लिये अपेक्षा-कृत अधिक सक्षम शरीर मिलती है और लोक की सामान्य परिस्थितियाँ भी अधिक सम्पन्न होती हैं । ...... क्रमश:

दत्तम् कर्म

माया-कल्पित-जगत्-सोपान दत्तम् कर्म शरणागत की रक्षा करने को दत्तम कर्म कहा जाता है । कोई अ-सहाय परिस्थितियों से ग्रसित व्यक्ति यदि शरणागत होता है , उसे उसकी त्रासित स्थिति से उबरने के लिये , बिना किसी प्रतिफल के कामना किये , सहायता करना और उसे सामान्य जीवन का पथ योजित करने को दत्तम् कर्म कहा जाता है । दत्तम् कर्म का फल स्वर्ग-लोक की प्राप्ति बताया गया है । ..... क्रमश:

पूर्तम्

माया-कल्पित-जगत्-सोपान पूर्तम् वह कर्म जो जन हित के लिये किये जाते हैं उन्हे पूर्त कर्म कहा जाता है । जल पीने हेतु कूआँ का निर्माण , ईश्वर आराधना के लिये मन्दिर का निर्माण , तीर्थ-यात्रियों को यात्रा काल में ठहरने के लिये शुल्क रहित धर्म-शाला का निर्माण जिसमें मुफ्त भोजन की व्यवस्था करना , सार्वजनिक उपयोग के लिये तालाब का निर्माण आदि कर्म को करना पूर्तम् कर्म कहा जाता है । पूर्तम् कर्म का फल स्वर्ग-लोक की प्राप्ति बताया गया है । ...... क्रमश:

ईष्ट कर्म

माया-कल्पित-जगत्-सोपान ईष्ट कर्म यज्ञ कर्म , अग्नि-होत्र-कर्म , तप: , सत्यम् ब्रत का पालन , वेद आदेशों का पालन , अतिथि का सत्कार करने वाला , वैश्वदेव यज्ञ कर्म करने को ईष्ट कर्म कहा जाता है । ईष्ट कर्म करने का फल स्वर्ग-लोक की प्राप्ति बताया गया है । ईष्ट कर्म करने वाला व्यक्ति की मृत्यु की दशा में उस व्यक्ति की सूक्ष्म शरीर कृष्ण गति द्वारा चन्द्र-लोक जिसे स्वर्ग-लोक भी कहा जाता है को जाता है । ....... क्रमश:   

कृष्ण गति

माया-कल्पित-जगत्-सोपान कृष्ण गति सूक्ष्म पथ जिनसे होकर प्राण चन्द्रलोक की यात्रा करता है , उस पथ को कृष्ण गति कहा जाता है । गति का निर्धारण कर्म के आधार पर होता है । कर्म करने वाला कृष्ण गति द्वारा स्वर्गलोक की यात्रा करता है । ईष्टम् कर्म , पूर्तम् कर्म , दत्तम् कर्म , दानम् कर्म करने वाला कृष्ण-गति द्वारा स्वर्गलोक को प्राप्त होता है । ..... क्रमश:  

शुक्ल गति

माया-कल्पित-जगत्-सोपान शुक्ल गति सूक्ष्म-पथ जिससे होकर प्राण ब्रम्हलोक की यात्रा करता है , उसे शुक्ल-गति कहा जाता है । उपासना करने वाला , और कर्म-उपासना-समुच्चय करने वाला शुक्ल-गति द्वारा ब्रम्ह-लोक को प्राप्त होता है । ज्ञातव्य है कि ब्रम्ह-लोक ही माया-कल्पित-जगत् की सर्वोच्च स्थिति है । स्मरणीय है कि कर्म , उपासना , कर्म-उपासना-समुच्चय सर्व अपरा विद्या मात्र है । प्रलय काल में ब्रम्ह-लोक का भी लय होता है । इसलिये शुक्ल-गति भी मोक्ष नहीं है । ...... क्रमश:

ऋतु

माया-कल्पित-जगत्-सोपान ऋतु छ: ऋतुये नामत: बसंत , ग्रीष्म , वर्षा , शरद , हेमन्त , शिषिर होती हैं । ऋतुओं का आधार सूर्य की गति है । ऋतुयें औषधि और जीव दोनो को प्रभावित करती हैं । ऋतु की विभक्ति से मास है । मास की विभक्ति द्वारा तिथि है । उपरोक्त समस्त हिरण्यगर्भ का ही विस्तार है । उपरोक्त विस्तार विभक्ति द्वारा सम्भव होता है । उपरोक्त समस्त विस्तार माया-कल्पित-जगत् के काल का विस्तार मात्र है । ...... क्रमश:

दक्षिणायनं

माया-कल्पित-जगत्-सोपान दक्षिणायनंं संवतसर के जिस भाग में सूर्य उत्तर से   दक्षि ण दिशा में गति करता है , उसे दक्षिणायन कहा जाता है । इस अयन की अवधि भी छ: मास होती है । अग्रेजी कलेन्डर के जुलाई माह के मध्य से जनवरी मध्य पर्यन्त दक्षिणायन होता है । इस अयन के अधिपति चन्द्र-देवता हैं । यह कृष्ण-गति का अयन होता है । ...... क्रमश: 

उत्तरायणं

माया-कल्पित-जगत्-सोपान उत्तरायणं संवतसर के जिस भाग में सूर्य दक्षिण से उत्तर दिशा में गति करता है , उसे उत्तरायण कहा जाता है । इस गति का प्रारम्भ मकर-संक्रान्ति से होता है । उपरोक्त कथित मकर-संक्रान्ति अंग्रेजी कैलेन्डर के जनवरी माह के मध्य में प्राय: होती है । उपरोक्त अयन की अवधि छ: माह होती है । उत्तरायण को पवित्र अयन माना जाता है । शुभ कर्मों और पुण्य-फलों का अयन माना जाता है । इस अयन के अधिपति सूर्य-देवता होते हैं । ....... क्रमश:  

संवत्सर सर्वोच्च

माया-कल्पित-जगत्-सोपान संवत्सर सर्वोच्च काल के विचार में संवतसर सर्वोच्च माप है । पुन: छोटे मापो के रूप में अयनं , ऋतुयें , मास , दिवस आदि हैं । बडे माप के लिये संवतसर के गुणित का प्रयोग किया जाता है । संवतसर को शास्त्रो में हिरण्यगर्भ कहा गया है । स्मरणीय एवं ज्ञातव्य है कि काल की अनुभूति का आधार , सूर्य और चन्द्र की गति है , और सूर्य तथा चन्द्र स्वयं हिरण्यगर्भ की ही रयि-प्राण रूप में अभिव्यक्तियाँ हैं । उपरोक्त कथित समस्त की एकीकृत अभिव्यक्ति है , हिरण्यगर्भ ही काल हैं । यह माया-कल्पित-जगत् के आधारभूत अवयवों का तीसरा चरण है । पहला चरण मिथुन , दूसरा चरण लोक का पूर्व में उल्लेख किया गया है । ..... क्रमश:

काल-सृष्टि

माया-कल्पित-जगत्-सोपान काल-सृष्टि सूर्य के उदय से दिन है । सूर्य के अस्त से रात्रि है । उपरोक्त अनुभूति ही काल के बोध का आधार है । चन्द्रमा की कलायें अर्थात् प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त का चन्द्रमा के स्वरूप का वृद्धि-क्रम , और प्रतिपदा से अमावस्या पर्यन्त चन्द्रमा के स्वरूप का ह्रास-क्रम , तिथियों के बोध का आधार है । उपरोक्त वर्णित दिन-रात्रि और तिथियाँ ही काल के परिवर्तनीय प्रकृति के अनुभूति का आधार हैं । यह हिरण्यगर्भ सृष्टि का काल , माया-कल्पित-जगत् की तीसरे चरण का सृजन है । ...... क्रमश

दिवाकर:

माया-कल्पित-जगत्-सोपान दिवाकर: सूर्य उदय दिन का कारक है । सूर्य अस्त रात्रि का कारक है । तिथि , पक्ष , ऋतु , का कारक चन्द्र है । सूर्य , चन्द्र के कारकत्व द्वारा ही काल है । इसलिये काल-सृष्टि है । काल भी हिरण्यगर्भ है । उपरोक्त वर्णित स्थिति को व्यक्त करने के लिये , सूर्य को दिन का स्वामी के रूप में , दिवाकर कहा गया है । ..... क्रमश:

प्राण: सर्वात्मक:

माया-कल्पित-जगत्-सोपान प्राण: सर्वात्मक: सभी जीव का आश्रय प्राण है । आत्मा सर्वजीव के जीवत्व का आश्रय होता है । व्यवहारिक जीव का आश्रय प्राण होता है । ज्ञान का आश्रय आत्मा होती है । सूर्य सर्व जीव के प्राण-शक्ति का आश्रय है । सूर्य के उपरोक्त वर्णित सर्वभौम प्राण-पोषण सामर्थ्य को , शास्त्रों में उत्तम अभिव्यक्ति द्वारा निरूपित करने के उद्देष्य से , सर्वात्मक: शब्द का प्रयोग किया गया है । ...... क्रमश:  

ज्योतिरेकं

माया-कल्पित-जगत्-सोपान ज्योतिरेकं सूर्य की ज्योति को प्रकाश भी कहा जाता है एवं सूर्य-ज्योतिं को चैतन्य के रूप में वर्णन किया जाता है । गायत्री मन्त्र में “ भर्ग: ” शब्द भी द्वि-अर्थीय है , पहला प्रकाश और दूसरा चैतन्य , जो कि सूर्य के लिये प्रयोग किया गया है । सूर्य के प्रकाश से संचरित ऊर्जा द्वारा जीव को   प्राण-शक्ति मिलती है । जीव प्राण शक्ति द्वारा ही गति को प्रेरित होता है । उपरोक्त कथित स्थिति को व्यक्त करने के लिये शास्त्र ज्योतिरेकं शब्द का प्रयोग करते हैं । ..... क्रमश:  

परायणं

माया-कल्पित-जगत्-सोपान परायणं सूर्य सर्व जीव का आश्रय है इसलिये परायणं भी कहा गया है । प्राण-शक्ति का आश्रय है । प्राण ही जीव का आधार होता है । इसलिये सूर्य को सर्व जीव का आश्रय कहा जाता है । जीव सूर्य के अति-ताप को भी बर्दाश्त नहीं कर पाता है । जीव सूर्य के अल्प ताप की स्थिति से भी व्यथित होकर जीवित नहीं रह पाता है । सूर्य ही सर्व वस्तु-रूपों का भी आश्रय है । शास्त्रों में सूर्य की उपरोक्त वर्णित स्थिति को व्यक्त करने के लिये परायणं शब्द का प्रयोग किया गया है । ...... क्रमश:  

सूर्य-देवता

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सूर्य-देवता सूर्य यथा दृष्य एक प्रकाशमान अग्निपिण्ड है । परन्तु उपरोक्त कथित सूर्य का चैतन्यसहित विचार करने पर वह सूर्य देवता हैं । हिरण्यगर्भ देवता हैं । प्राण देवता हैं । समस्त जीव कोटि के प्राण के आधार देवता हैं । समस्त ऋषिगण सूर्य को उपरोक्त कथित रूप नें देखते हैं । जानते हैं । शास्त्रों में सूर्य को भूलोक का प्राण बताया गया है । ...... क्रमश:  

जातवेद:

माया-कल्पित-जगत्-सोपान जातवेद: सर्व प्रकाशतयति , सूर्य सर्व को प्रकाशित करता है इसलिये सर्व-प्रकाशक है । सूर्य को एक जड अग्नि पिण्ड के रूप में विचार करने पर यह मात्र प्रकाश और ऊर्जा श्रोत है । परन्तु उपरोक्त कथित अग्नि-पिण्ड में चैतन्य के वेध के विचार से सूर्य का अस्तित्व सूर्य-देवता के रूप में है । यह देवता रूप आराध्य सूर्य है । यह रूप जातवेद: कहा गया है । ....... क्रमश:  

सूर्य-सर्वात्मक

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सूर्य-सर्वात्मक सूर्य ही सर्व जीव का आधार है । जीव और जड दोनो का आधार है । सर्व का आधार होने के कारण ही सूर्य को सर्वात्मक कहा गया है । सभी जड-वस्तु और प्रत्येक-गति का आधार , सूर्य है । समस्त चर और अ-चर का आधार सूर्य है । स्मरणीय है कि सूर्य मिथुन सृष्टि के रयि-प्राण उत्पत्ति के संदर्भ में वर्णित प्राण है । प्राण हिरण्यगर्भ की अ-व्यक्त अभ्यक्ति है । इस रूप में हिरण्यगर्भ ही सर्वस्य का आधार है , जीवन आधार है , प्राण है । ...... क्रमश:  

वैश्वानर

माया-कल्पित-जगत्-सोपान वैश्वानर विस्वे = सर्व , नर = जीव , जीव का जीवन ही सूर्य के द्वारा है , इसलिये सूर्य वैश्वानर है । व्यक्ति के प्राण के रूप में सूर्य है । सूर्य के आभाव में किसी जीव का जीवन सम्भव नहीं हैं । सूर्य प्रत्येक जीव को क्रियाशील बनाता है । इसलिये विराट है । विश्वरूप: सर्व वस्तु है । विश्वरूप जो कि सर्व वस्तुरूप में है । प्राण: सर्व जीव का जीवन है । अग्नि: ऊपर सूर्य अग्निरूप है और पृथ्वी पर अग्नि जीवंरूप है । ...... क्रमश:  

सूर्य-जीव-एकरूपता

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सूर्य-जीव-एकरूपता सूर्य की उर्जा से सर्व जीव हैं । सूर्य ही सर्व जीव की ऊर्जा का श्रोत है । जीव की , उपरोक्त कथित आश्रय और निर्भरता के कारण , और सूर्य द्वारा सर्व जीव को पोषण प्रदान करने के कारण , सूर्य और जीव को एकरूप कहा जाता है । शास्त्र उपरोक्त कथित एकरूपता को विविध नामों से उपदेश करते हैं जिनका उल्लेख आगे के अंको में किया जायेगा । ..... क्रमश:  

गायत्री मन्त्र

माया-कल्पित-जगत्-सोपान गायत्री मन्त्र विख्यात गायत्री मन्त्र व्यक्त करता है कि भौतिक शक्ति , प्राणा शक्ति , बौद्धिक शक्ति सर्व सूर्य द्वारा प्रदत्त है । सूर्य जीव कोटि के लिये ऊर्जा श्रोत है । सूर्य जीव कोटि के लिये प्राण श्रोत है । प्राण शक्ति हिरण्यगर्भ है । हिरण्यगर्भ ने अपने को जीवों के रूप में विस्तृत कर दिया है । हिरण्यगर्भ ने अपने को विभक्ति द्वारा गुणित कर दिया है । समष्टि व्यष्टि के रूप में विस्तृत होकर जीव प्रपंच के नाम से विख्यात है । प्राण सर्वस्य है । ..... क्रमश:   

सूर्य सर्वस्य है

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सूर्य सर्वस्य है सूर्य प्राण का प्रतिनिधित्व करता है । सूर्योदय होने पर ही प्राण शक्ति सर्व जीव में विकीर्त होती है । इस रूप में सूर्य ही सर्व जीव के प्राण शक्ति का आधार है । यद्यपि कि एक भ्रान्ति धारणा लोकव्याप्त है कि जीव के प्राण का आधार अन्न है । अन्न की उत्पत्ति ही सूर्य की प्रदत्त उर्जा के आश्रय पर है । इसरूप में सूर्य ही सर्व जीव का आधार है । इसलिये सूर्य को सर्वात्मिकात्व कहा जाता है । ..... क्रमश:

रयि प्राण प्रजापति

माया-कल्पित-जगत्-सोपान रयि प्राण प्रजापति  रयि हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति है इसलिये रयि हिरण्यगर्भ ही है । प्राण हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति है इसलिये हिरण्यगर्भ ही है । हिरण्यगर्भ ही सर्वस्य है इसलिये रयि ही सर्वस्य है । सर्वस्य व्यक्त रयि है । सर्वस्य अव्यक्त प्राण है । व्यक्त स्थूल है । अ-व्यक्त सूक्ष्म है । फिरभी लोकव्यवहार के लिये सर्वस्य व्यक्त को रयि कहा गया है और सर्वस्य अव्यक्त को प्राण कहा गया है । सर्वस्य व्यक्त विराट-देवता हैं ,  सर्वस्य-अ-व्यक्त हिरण्यगर्भ-देवता हैं । व्यक्त अर्थात् विराट कर्म का प्रतिनिधित्व व्यक्त करने वाला है । प्राण अर्थात् कर्म के लिये वाँक्षित उर्जा अर्थात् कर्म-शक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाला है । वास्तव में रयि और प्राण का भेद केवल व्यवहार में प्रयोग हेतु है । रयि और प्राण दोनो ही हिरण्यगर्भ हैं । इसलिये सर्वस्य रयि है । सर्वस्य प्राण है । ....... क्रमश:  आगामी चार दिनो यह लेख प्रेषण बाधित रहेगा !  

सूर्य-चन्द्रमा प्रथम लोक मिथुनम्

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सूर्य-चन्द्रमा प्रथम लोक मिथुनम् सूर्य और चन्द्रमा मिलकर एक पूर्ण का सृजन करते हैं । यह लोक-सृष्टि का प्रथम सृजन है । उपरोक्त मिथुनम् में चन्द्रमा रयि है । उपरोक्त मिथुन का सूर्य प्राण है । सूर्य दिन का शासक है । चन्द्रमा रात्रि का शासक है । दिन-रात मिलकर ही एक सम्पूर्ण है । सूर्य गति का शासक है । चन्द्रमा विश्राम का शासक है । गति-विश्राम मिलकर ही एक सम्पूर्ण हैं । दक्षिणायन-उत्तरायण दोनो मिलकर ही एक सम्पूर्ण हैं । यह लोक सृष्टि प्रजापति हिरण्यगर्भ की सृष्टि प्रक्रिया का दूसरा अवयव है । ..... क्रमश: