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जनवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

भोक्ता-भोज्य

पद-परिचय-सोपान भोक्ता-भोज्य भोक्ता अर्थात् विषय होता है । भोज्य अर्थात् वस्तु होता है । भोक्ता अर्थात् अनुभव-कर्ता है । भोज्य अर्थात् अनुभव किया जाने वाला वस्तु-रूप-जगत् है । यह व्यवहारिक जीवन चेतन जीव और अचेतन जगत् के मध्य क्रिया-प्रतिक्रिया है । इस जगत् का जीव भोक्ता है , और जगत् भोज्य है । भोक्ता व्यक्ति अपने समस्त अनुभव इसी भोज्य जगत् से अर्जित करता है । व्यक्ति के लिये यह जगत् अनुभव-ग्रहण-स्थल है । अनुभव-भोग वह भोक्ता-व्यक्ति (स्थूल-शरीर-मस्तिष्क-समुदाय) अपने पूर्व-जन्मों के संचित कर्मफलो के भोग की प्रक्रिया में करता है और यह जगत् जीव (स्थूल-शरीर-मस्तिष्क-समुदाय) के संचित-कर्म-फलो को भोग प्रदान करने का स्थल है । कर्म (यज्ञ) के प्रकरण में स्थिति भिन्न होती है । यज्ञ-कर्म , जीव (स्थूल-शरीर-मस्तिष्क-समुदाय) देवताओं की तुष्टि के लिये करता है । इस प्रकार कर्म (यज्ञ)   के प्रकरण में देवता भोक्ता होता है , और कर्म करने वाला व्यक्ति भोज्य होता है । परन्तु आप का स्वरूप अर्थात् आपकी आत्मा न ही भोक्ता है और न ही भोज्य है ........... क्रमश:  

त्रिकुटी

पद-परिचय-सोपान त्रिकुटी प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय , कर्ता-करण-कार्य इन्हें त्रिकुटी कहा जाता है । इनमें प्रत्येक अवयव का परिचय इस प्रकार है । प्रमाता – जो अनुभव-ज्ञान ग्रहण करता है उसे प्रमाता कहा जाता है । अनुभव-ज्ञान ग्रहण करने के लिये व्यक्ति जिस भी ज्ञानेन्द्री का प्रयोग करता है , उसे प्रमाण कहा जाता है । ज्ञातव्य है कि व्यक्ति की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच प्रमाण होती हैं । अनुभव-ज्ञान का जो लक्ष्य होता है उसे प्रमेय कहा जाता है । जो कर्म को करने वाला व्यक्ति है उसे कर्ता कहा जाता है । किसी भी कर्म को करने के लिये कर्ता-व्यक्ति जिस भी कर्मेन्द्रिय का प्रयोग करता है , उसे करण कहा जाता है । ज्ञातव्य है कि व्यक्ति के पास पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं , वह पाँचो कर्मेन्द्रियाँ पाँच करण होती हैं । कर्ता व्यक्ति की कर्म को करने के लिये प्रयोग की जा रही कर्मेन्द्रि के उद्यम् से सृजित होने वाले फल को कार्य कहा जाता है ....... क्रमश:   

पद-पदार्थ

पद-परिचय-सोपान   पद-पदार्थ नाम-रूप की जोडी है । घट नाम है । यह पद है । घट-रूप-वृत्ति रूप है । घट-रूप-वृत्ति रूप घट पद का पदार्थ है । पट नाम है । यह पद है । पट-रूप-वृत्ति रूप है । पट-रूप-वृत्ति रूप पट पद का पदार्थ है । किसी शिशु का जन्म होता है , उसका नाम-करण किया जाता है । शिशु का नाम उस नव-जन्में-शिशु की रूप-वृत्ति-रूप का पद है । उपरोक्त किये गये नाम-करण पद का वह नव-जन्मा-शिशु पदार्थ है । यह लोक-व्यवहार का प्रचलित स्वरूप है । प्रत्येक रूप को एक विलक्षण नाम के साथ सम्बद्ध करना लोकव्यवहार है । वस्तु नाम पद होता है । वस्तु रूप उस पद का पदार्थ होता है । इस स्थल पर विशेष उल्लेखनीय है कि व्यक्ति के पास पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । उपरोक्त वर्णित उदाहरणों में रूप , जो कि चक्षु इन्द्री का ज्ञेय क्षेत्र है , के लिये व्यक्त किया गया है । परन्तु निवेदन है कि उपरोक्त उदाहरण को प्रत्येक पाँच ज्ञानेन्द्रियों के लिये जिज्ञासु पाठक स्वयँ विस्तार करे ं , यथा खट्टा नाम है । पद है । खट्टा-स्वाद-वृत्ति खट्टा पद का पदार्थ है ....... क्रमश:

पटाक्षेप

पटाक्षेप अब तक की ज्ञान-गंगा-यात्रा में आप परिचित हो गये हैं कि अब तक का जीवन आप एक भ्रामक परिचय के आश्रय पर जीते आये हैं । जिस शरीर-मस्तिष्क समुदाय को आप अपना परिचय बताते हैं , वह जड पदार्थों से निर्मित और स्वयं जड स्वभाव का हैं । आप कहेंगे कि परन्तु हम तो चेतन हैं । आप का कहना भी सत्य है । आप चेतन सदृष्य व्यवहार कर रहे हैं , परन्तु आपका चेतन आपकी शरीर-मस्तिष्क समुदाय की अपनी सम्पत्ति नहीं है । आपका चेतन आपकी शरीर-मस्तिष्क समुदाय का मौलिक धर्म नहीं है । अब आप प्रश्न करेंगे कि फिर यह चेतन व्यवहार क्या है ? उत्तर है , चेतन-तत्व आपकी शरीर-मस्तिष्क-समुदाय से विलक्षण आपकी आत्मा का प्रसाद है । उपरोक्त कथित चेतन-तत्व-आत्मा का बोध ही वर्तमान ज्ञान-गंगा-प्रवाह का लक्षित गन्तव्य स्थल है । परन्तु यह आत्मा सूक्ष्मतम तत्व है जिसका ज्ञान-बोध केवल वेद-शास्त्र के आश्रय द्वारा क्रमबद्ध प्रयत्नों से ही सम्भव हो सकता है । उपरोक्त वर्णित प्रयत्न में उद्यत होने से पूर्व आपका परिचय कुछ नामों , कुछ प्रक्रियाओं , कुछ स्थितियों से कराना इसलिये आवश्यक है क्योंकि इनका प्रयोग बारम्बार उपरोक्त-कथित ज्ञान...

कारण-शरीर

कारण-शरीर जैसा कि इसके नाम से ही विदित है , यह शरीर कारण होती है , और इस कारण के कार्य के रूप में पूर्व-वर्णित सूक्ष्म-शरीर और स्थूल-शरीर की उत्पत्ति होती है । ज्ञातव्य है कि कारण से कार्य की उत्पत्ति होती है । प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है । उपरोक्त दोनो कथन एक दूसरे के पर्याय हैं । प्रश्न उठता है कि यदि स्थूल-शरीर , सूक्ष्म-शरीर समुदाय कार्य हैं , तो इस कार्य का कारण क्या है ? उत्तर है , पूर्व जन्मों के संचित कर्म-फलो का भोग वर्तमान स्थूल-शरीर , सूक्ष्म-शरीर की उत्पत्ति का कारण होता है । इस रूप में व्यक्ति की कारण-शरीर उसके अ-व्यक्त - संचित कर्म-फलों का संचय स्थल है । समष्टि स्तर पर जो कार्य माया का है , व्यष्टि स्तर पर वही कार्य इस कारण-शरीर का है । प्रत्येक जीव की शरीर में यह कारण-शरीर ही माया का स्थानीय कार्यालय होता है । माया समस्त जगत् की सृजन-सत्ता है , संचालक-सत्ता है । कारण-शरीर प्रत्येक जीव की सृजन-कर्ता-सत्ता है , संचालक-सत्ता है और जीव की लय सत्ता होती है । ज्ञातव्य है कि सृजन और लय व्यक्त-दशा और अ-व्यक्त दशा के ज्ञोतक होते है । जीव अर्थात् स्थूल-शरीर ...

सूक्ष्म-शरीर

सूक्ष्म-शरीर यह शरीर सूक्ष्म-पंच-महाभूतों द्वारा निर्मित होती है । ज्ञातव्य है कि सृष्टि प्रक्रिया जिसके विषय में आगे के अंको में विस्तार से वर्णन प्रस्तुत किया जायेगा , का प्रारम्भ करते हुये हिरण्यगर्भ , जो कि स्वयं समष्टि-सूक्ष्म-शरीर है , ने पहले सूक्ष्म-पंच-महाभूतों की ही उत्पत्ति की है । पुन: द्वितीय चरण में सूक्ष्म-पँच-महाभूतो के पंचीकरण से स्थूल-पँच-महाभूतों की उत्पती हुई है । यह सूक्ष्म-शरीर उन्नीस अंगो से युक्त होती है । पांच ज्ञानेन्द्रियाँ , पांच कर्मेन्द्रियाँ , पंच-प्राण नामत: प्राण , अपान , समान , व्यान , उदान इन सभी नामों के साथ प्राण शब्द जोडकर उच्चारण किया जाता है , इन पंच-प्राण के विषय में भी विस्तार आगे के अंको में प्रस्तुत किया जायेगा , वर्तमान में इनका केवल नाम-करण मात्र जान लेना अपेक्षित है , एवं चार प्रभागो नामत: मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार से युक्त मस्तिष्क है । उपरोक्त समस्त विवरण के अनुसार पांच ज्ञानेन्द्रिय , पांच कर्मेन्द्रिय , पंच-प्राण , चार-प्रभाग-युक्त-मस्तिष्क मिलाकर कुल योग उन्नीस अंग है । उपरोक्त समस्त विवरण से विदित है कि स्थूल ...

स्थूल-शरीर

स्थूल-शरीर मनुष्य का स्थूल शरीर दस इन्द्रियों से युक्त एक आवरण मात्र है । पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ मिला कर स्थूल शरीर के पास दस इन्द्रियों का समूह है । यह ढाँचा मात्र है । यह स्थूल-शरीर स्थूल- पँच-महाभूतों से निर्मित होता है । पँच महाभूत नामत: आकाश-वायु-अग्नि-आपा-पृथ्वी हैं , जो कि स्थूल-शरीर की मृत्यु की दशा में , प्रत्येक पंच-महाभूत अपने अपने मौलिक उद्गम-श्रोत में वापस स्थापित हो जाते हैं । यद्यपि की बाह्य जगत् के साथ व्यवहार यह स्थूल शरीर ही करता है , परन्तु इसका व्यवहार सामर्थ्य इसकी अपनी मौलिक सामर्थ्य नहीं होती है । इस स्थूल शरीर का पोषण अन्न से होता है । इस स्थूल शरीर की उत्पत्ति भी अन्न से ही होती है । अन्न भी पंच-महाभूतों की ही उत्पत्ति होते हैं । उपरोक्त समस्त विवरण से स्पष्ट है कि यह स्थूल शरीर मात्र अन्न से निर्मित एक आवरण है । व्यवहारिक जगत् में व्यक्ति अपने स्थूल शरीर को अपना परिचय मानता है , बताता है । इस प्रकार उपरोक्त तथ्य के विमोचन द्वारा व्यक्ति को अपने स्वरूप के सम्बन्ध में अपने पहली भ्रान्ति धारणा का परिचय भी प्राप्त होता है । कैसे ? क्य...

ज्ञान-परम्परा-संचार

ज्ञान-परम्परा-संचार वैदिक धर्मग्रन्थ के विषय में बताया गया है कि इनका उद्भव स्वयं नारायण के श्रीमुख से हुआ है । यह ज्ञान मौखिक उपदेश की परम्परा से युगो पर्यन्त सन्चरित होता रहा है । एक लम्बी गुरू-शिष्य परम्परा का उल्लेख वर्णन शास्त्रों में मिलता है । महर्षि व्यासाचार्य ने वेदों को चार भाग में विभक्त कर इसे लिखित ग्रन्थ का रूप प्रदान किये इसलिये महर्षि व्यासाचार्य को वेद-व्यास भी कहा जाता है । वेद और श्रुति पर्याय हैं । इन ग्रन्थों में सम्पूर्ण ज्ञान निहित है । ये प्रमाण हैं । इनमें निहित ज्ञान की आश्रय द्वारा ही अन्य सभी धर्म-ग्रन्थों का उद्भव हुआ है । इनकी प्रभुता अ-संदिग्ध है । इस स्थल पर ज्ञेय है कि वेद अ-पूर्व निरूपित ज्ञान को प्रगट करने के कारण ही प्रामाणिक माने गये हैं ।  यद्यपि कि इन प्रमाणों को न स्वीकारने वाले धर्म-दर्शन भी हैं । परन्तु आज के युग में बहुत बडा जन-मानस समुदाय है । यह स-अधिकार कोई नहीं कह सकता कि एक सत्ता सर्वमान्य है । वेद अनुयायियों का स-अधिकार कहना है कि यह ज्ञान केवल विश्वास के आश्रय पर लम्बित नहीं है । जो कोई वेदों के उपदेशों को अपने जीवन में , ज...

ज्ञान-फल

ज्ञान-फल आत्मज्ञानी विद्वान आचार्य आदि-शंकर वृहदारण्यक उपनिषद के अपने भाष्य में ज्ञानी के लक्षणों को बताते हुये लिखते हैं कि अमानित्वम् , अदम्भित्वम् , अहिंसा , क्षान्ति: , आर्जवम् , आचार्य-उप-आसनम् , शौचम् , स्थैर्यम् , आत्म-विनिग्रह: , वैराग्यम् , अन-अहंकार , जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-दु:ख-दोष-अनुदर्शनम् , आसक्ति: , अनाभिष्वंग: , नित्यं , सम:-चित्तत्वं , इष्ट-अनिष्ट-उपपत्तेषु ज्ञानी का परिचय बन जाते है । उपरोक्त वर्णित समस्त गुण-धर्मों का विस्तृत परिचय आगे के अंको में दिया जायेगा । व्यक्ति की आत्मा और ब्रम्ह दोनो भिन्न नहीं हैं अपितु एक ही हैं । आत्म-ज्ञान का अर्थ ब्रम्ह-ज्ञान है । ब्रम्ह-ज्ञानी स्वयं ब्रम्ह है । उपरोक्त सभी अभिव्यक्तियाँ एक दूसरे की पर्याय हैं । आत्म-ज्ञानी इस बसुन्धरा पर जीवित-चलता-फिरता ब्रम्ह होता है । ........क्रमश:   

शब्द-ब्रम्ह-वेद

शब्द-ब्रम्ह-वेद महर्षि वेद-व्यास द्वारा वेदों को चार भागों में विभक्त किया गया है । उपरोक्त विभाजन का आधार उनमें निहित पाठ्य पर आधारित है । यह विभाजन का एक पक्ष है । वेदों के विभाजन का एक दूसरा पक्ष भी है । यह पक्ष उसके निहित विषय पर आधारित है । इसके अनुसार वेदों को तीन भागों में , नामत: पहला कर्म-काण्ड , दूसरा उपासना-काण्ड , तीसरा ज्ञान-काण्ड में , विद्वानो द्वारा विभक्त किया जाता है । संस्कृत भाषा में काण्ड शब्द का प्रयोग विषय अथवा प्रसंग को व्यक्त करने के लिये किया जाता है । इस प्रकार उपरोक्त वर्णित काण्डो को कर्म-प्रसंग , उपासना-प्रसंग , ज्ञान-प्रसंग भी कहा जा सकता है । यह नया नाम-करण विभाजन को समझने में सुगम बनाने के दृष्टिकोण से किया जाता है । कर्म-काण्ड यज्ञों की क्रिया-पद्धति से सम्बन्धित काण्ड है । यज्ञ विधान देवताओं को तुष्ट करने के उद्देष्य से किये जाते हैं । इन यज्ञ कर्मों के फल से मस्तिष्क पवित्र होता है । उपासना मानसिक-कर्म होती है । उपासना के फल से मस्तिष्क का विस्तार होता है । विस्तार मस्तिष्क के प्रकरण में उसकी कार्य-क्षमता के विचार से है । ज्ञान-काण्ड ज्ञान-स...

विचार-प्रवेष-सतत्

विचार-प्रवेष-सतत् वर्तमान लेख-श्रंखला के नाम ज्ञान गंगा के पहले शब्द की व्यख्या गत अंक में निवेदित करने के उपरान्त वर्तमान अंक में दूसरे शब्द गंगा की व्याख्या निम्नवत् प्रस्तुत की जा रही है- विचार का उदय मस्तिष्क में होता है । मस्तिष्क व्यष्टि स्तर पर भी है और समष्टि मस्तिष्क का भी उल्लेख शास्त्रों में वर्णित है । मस्तिष्क के विचार का संचार प्रवृत्त किया जाता है । यह संचार स-उद्देष्य होता है । एक मस्तिष्क में उदय होने वाला अथवा पूर्व से संचित विचार बहुसँख्यक को विचार के लिये उपलब्ध हो सके , यह संचार का उद्देष्य होता है । उपरोक्त कथित संचार यदि सतत् होता रहे तो वह प्रवाह बन जाता है । वर्तमान आत्म-ज्ञान का प्रकरण विस्तृत और गहन विचार का प्रकरण है । इसलिये उपरोक्त आत्म-ज्ञान के प्रकरण को सतत् एक श्रखंला के रूप में संचरित करने से ही उसका संचरण एक मस्तिष्क से बहुसंख्यक मस्तिष्क पर्यन्त सम्भव है । आत्म-ज्ञान शाश्वत् ज्ञान स्वरूप है । गंगा शाश्वत् एवं प्रवाह का आदर्श प्रतीक है । इस अभिप्राय से , वर्तमान लेख श्रंखला में लक्षित ज्ञान संचार , की अभिव्यक्ति के लिये , लेख-श्रंखला क...

विचार-प्रवेष

विचार-प्रवेष वर्तमान लेख श्रंखला का नाम करण ज्ञान गंगा किया गया है । उपरोक्त नाम शीर्शक के प्रथम शब्द की व्याख्या निम्नवत् प्रस्तुत है- वैदिक ग्रन्थों में ज्ञान शब्द का प्रयोग आत्म-ज्ञान के अर्थ में किया गया है । आत्मा का अर्थ स्वरूप है । प्रत्येक व्यक्ति का स्वरूप है । प्रत्येक जीव का स्वरूप है । व्यक्ति का स्वरूप उसकी आत्मा है । उपरोक्त कथित आत्मा के ज्ञान को शास्त्रों में ज्ञान के अभिप्राय में वर्णित किया गया है । उपरोक्त अभिव्यक्ति व्यवहारिक जगत् के मानको से प्रश्न-वाचक बन जाती है । कैसे ? कि क्या व्यक्ति को अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं है जो शास्त्र इस आत्मा के ज्ञान को ज्ञान की परिभाषा निर्धारित कर रहे हैं ? उपरोक्त प्रश्न व्यवहारिक दृष्टि से उचित प्रश्न है । परन्तु ज्ञान की दृष्टि से मिथ्या है । व्यवहारिक जगत् में व्यक्ति अपने जिस परिचय के साथ इस जगत् में व्यवहार कर रहा है वह अहंकार से पोषित है । अहंकार भ्रम है । व्यक्ति का सत्य स्वरूप उसकी आत्मा है । व्यवहारिक जगत् का प्रत्येक व्यक्ति अपनी आत्मा से अनभिज्ञ है । इसलिये ही वह भ्रम अहंकार से संचालित हो रहा है । ...