भोक्ता-भोज्य
पद-परिचय-सोपान भोक्ता-भोज्य भोक्ता अर्थात् विषय होता है । भोज्य अर्थात् वस्तु होता है । भोक्ता अर्थात् अनुभव-कर्ता है । भोज्य अर्थात् अनुभव किया जाने वाला वस्तु-रूप-जगत् है । यह व्यवहारिक जीवन चेतन जीव और अचेतन जगत् के मध्य क्रिया-प्रतिक्रिया है । इस जगत् का जीव भोक्ता है , और जगत् भोज्य है । भोक्ता व्यक्ति अपने समस्त अनुभव इसी भोज्य जगत् से अर्जित करता है । व्यक्ति के लिये यह जगत् अनुभव-ग्रहण-स्थल है । अनुभव-भोग वह भोक्ता-व्यक्ति (स्थूल-शरीर-मस्तिष्क-समुदाय) अपने पूर्व-जन्मों के संचित कर्मफलो के भोग की प्रक्रिया में करता है और यह जगत् जीव (स्थूल-शरीर-मस्तिष्क-समुदाय) के संचित-कर्म-फलो को भोग प्रदान करने का स्थल है । कर्म (यज्ञ) के प्रकरण में स्थिति भिन्न होती है । यज्ञ-कर्म , जीव (स्थूल-शरीर-मस्तिष्क-समुदाय) देवताओं की तुष्टि के लिये करता है । इस प्रकार कर्म (यज्ञ) के प्रकरण में देवता भोक्ता होता है , और कर्म करने वाला व्यक्ति भोज्य होता है । परन्तु आप का स्वरूप अर्थात् आपकी आत्मा न ही भोक्ता है और न ही भोज्य है ........... क्रमश: