विचार-प्रवेष
विचार-प्रवेष
वर्तमान लेख श्रंखला का नाम करण ज्ञान गंगा किया गया है । उपरोक्त
नाम शीर्शक के प्रथम शब्द की व्याख्या निम्नवत् प्रस्तुत है-
वैदिक ग्रन्थों में ज्ञान शब्द का प्रयोग आत्म-ज्ञान के अर्थ में
किया गया है । आत्मा का अर्थ स्वरूप है । प्रत्येक व्यक्ति का स्वरूप है ।
प्रत्येक जीव का स्वरूप है । व्यक्ति का स्वरूप उसकी आत्मा है । उपरोक्त कथित
आत्मा के ज्ञान को शास्त्रों में ज्ञान के अभिप्राय में वर्णित किया गया है
।
उपरोक्त अभिव्यक्ति व्यवहारिक जगत् के मानको से प्रश्न-वाचक बन जाती है ।
कैसे ? कि क्या व्यक्ति को अपने स्वरूप का ज्ञान
नहीं है जो शास्त्र इस आत्मा के ज्ञान को ज्ञान की परिभाषा निर्धारित कर
रहे हैं ? उपरोक्त प्रश्न व्यवहारिक दृष्टि से उचित
प्रश्न है । परन्तु ज्ञान की दृष्टि से मिथ्या है ।
व्यवहारिक जगत् में व्यक्ति अपने जिस परिचय के साथ इस जगत् में व्यवहार
कर रहा है वह अहंकार से पोषित है । अहंकार भ्रम है । व्यक्ति का सत्य स्वरूप उसकी
आत्मा है । व्यवहारिक जगत् का प्रत्येक व्यक्ति अपनी आत्मा से अनभिज्ञ है । इसलिये
ही वह भ्रम अहंकार से संचालित हो रहा है ।
इसलिये उपरोक्त वर्णित शास्त्रों में प्रयुक्त ज्ञान की परिभाषा अतिशय सत्य
है । व्यक्ति की आत्मा ज्ञान-स्वरूप है । इसलिये उपरोक्त कथित ज्ञान की परिभाषा के
अनुरूप, आप अपने सत्य स्वरूप, अपने आत्म-ज्ञान के लिये, इस ज्ञान-गंगा के प्रवाह में सम्मलित
होकर, इसके प्रवाह के साथ बहते हुये आगे बढें
और ज्ञान पर्यन्त साथ साथ रहें इस आग्रह के साथ पहले शब्द की व्याख्या की इति ।
शीर्शक के दूसरे शब्द की व्याख्या अगले अंक में पढें..........क्रमश:
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