कारण-शरीर

कारण-शरीर जैसा कि इसके नाम से ही विदित है, यह शरीर कारण होती है, और इस कारण के कार्य के रूप में पूर्व-वर्णित सूक्ष्म-शरीर और स्थूल-शरीर की उत्पत्ति होती है । ज्ञातव्य है कि कारण से कार्य की उत्पत्ति होती है । प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है । उपरोक्त दोनो कथन एक दूसरे के पर्याय हैं । प्रश्न उठता है कि यदि स्थूल-शरीर, सूक्ष्म-शरीर समुदाय कार्य हैं, तो इस कार्य का कारण क्या है ? उत्तर है, पूर्व जन्मों के संचित कर्म-फलो का भोग वर्तमान स्थूल-शरीर, सूक्ष्म-शरीर की उत्पत्ति का कारण होता है । इस रूप में व्यक्ति की कारण-शरीर उसके अ-व्यक्त-संचित कर्म-फलों का संचय स्थल है । समष्टि स्तर पर जो कार्य माया का है, व्यष्टि स्तर पर वही कार्य इस कारण-शरीर का है । प्रत्येक जीव की शरीर में यह कारण-शरीर ही माया का स्थानीय कार्यालय होता है । माया समस्त जगत् की सृजन-सत्ता है, संचालक-सत्ता है । कारण-शरीर प्रत्येक जीव की सृजन-कर्ता-सत्ता है, संचालक-सत्ता है और जीव की लय सत्ता होती है । ज्ञातव्य है कि सृजन और लय व्यक्त-दशा और अ-व्यक्त दशा के ज्ञोतक होते है । जीव अर्थात् स्थूल-शरीर, सूक्ष्म-शरीर समुदाय, जिसमें कि सूक्ष्म-शरीर असँख्य स्थूल-शरीरों का भोग करते हुये पुण्य-पाप-कर्मों को करते हुये संचित-कर्म-फल एकत्रित करती आयी है, वह समस्त संचित-कर्म-फल अव्यक्त दशा में इस कारण-शरीर में विद्यमान रहते हैं । इस कारण-शरीर का क्षय सृष्टि के प्रलय-काल में भी नहीं होती है । अगली सृष्टि का प्रारम्भ इन्ही पूर्व-सृष्टि की रक्षित कारण-शरीरों से सम्भव होती है । नित्य के व्यवहारिक जगत् में स्थूल-शरीर, सूक्ष्म-शरीर समुदाय के जीवन-भोग में स्थूल-शरीर और सूक्ष्म-शरीर तीन अवस्थाओं नामत: जागृत-दशा, स्वप्न-दशा, सुशुप्ति-दशा का जीवन भोग करते हैं । सुशुप्ति की दशा में समस्त इन्द्रियाँ और मस्तिष्क इसी कारण-शरीर में अव्यक्त-दशा में पर्णित होकर लय करते हैं जो कि जागृत दशा की पुनर्स्थापना पर पुन: व्यक्त-दशा अर्थात् कार्यकारी-दशा में वापस स्थापित होते हैं.........क्रमश: 

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