ज्ञान-परम्परा-संचार
ज्ञान-परम्परा-संचार
वैदिक धर्मग्रन्थ के विषय में बताया गया है कि इनका उद्भव स्वयं नारायण
के श्रीमुख से हुआ है । यह ज्ञान मौखिक उपदेश की परम्परा से युगो पर्यन्त सन्चरित
होता रहा है । एक लम्बी गुरू-शिष्य परम्परा का उल्लेख वर्णन शास्त्रों में मिलता
है । महर्षि व्यासाचार्य ने वेदों को चार भाग में विभक्त कर इसे लिखित ग्रन्थ का
रूप प्रदान किये इसलिये महर्षि व्यासाचार्य को वेद-व्यास भी कहा जाता है । वेद और
श्रुति पर्याय हैं । इन ग्रन्थों में सम्पूर्ण ज्ञान निहित है । ये प्रमाण हैं ।
इनमें निहित ज्ञान की आश्रय द्वारा ही अन्य सभी धर्म-ग्रन्थों का उद्भव हुआ है ।
इनकी प्रभुता अ-संदिग्ध है । इस स्थल पर ज्ञेय है कि वेद अ-पूर्व निरूपित ज्ञान को
प्रगट करने के कारण ही प्रामाणिक माने गये हैं ।
यद्यपि कि इन प्रमाणों को न
स्वीकारने वाले धर्म-दर्शन भी हैं । परन्तु आज के युग में बहुत बडा जन-मानस समुदाय
है । यह स-अधिकार कोई नहीं कह सकता कि एक सत्ता सर्वमान्य है । वेद अनुयायियों का स-अधिकार
कहना है कि यह ज्ञान केवल विश्वास के आश्रय पर लम्बित नहीं है । जो कोई वेदों के
उपदेशों को अपने जीवन में, जीवन को जीने की पद्धति के रूप में जीवन यापन
करके परीक्षित करेगा, वह स्वयं इन उपदेशों के प्रसाद द्वारा ज्ञानी
हो जायेगा, अर्थात् वह आत्म-ज्ञान के स्वरूप का बनकर
यह सिद्ध करेगा कि यह ज्ञान प्रामाणिक है । यह विलक्षण ज्ञान है । यह ज्ञान केवल
उपदेश अथवा शिक्षण के लिये नहीं हैं, अपितु इन उपदेशों को अपने जीवन का स्वरूप
बना कर जीवन जीने के लिये है ।
विलक्षण ज्ञान की यात्रा का शुभारम्भ करते हैं, सर्व-प्रथम उस शरीर से जिसको आप अभी तक अपना स्वरूप अपना परिचय जानते
रहे हैं, उस शरीर के सम्बन्ध में शास्त्र क्या
उपदेश करते हैं ? शास्त्र बताते हैं कि, यह मनुष्य का शरीर तीन स्तर का है । पहला स्थूल-शरीर, दूसरा सूक्ष्म-शरीर, तीसरा कारण-शरीर ..... क्रमश:
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