सद्यो मुक्ति


शिक्षण-विधि-सोपान
सद्यो मुक्ति सत्य और भ्रान्ति के विभाजन से वर्गीकरण होता है । सत्य ब्रम्ह है । माया भ्रान्ति है । दोनो एक साथ हैं । चाहे जड-जगत् का विचार करें, अथवा चेतन-जीव का विचार करें, माया-कल्पित-जगत् के उपरोक्त कथित दोनो अवयव प्रपंचों का आध्रार ब्रम्ह का सत्यत्व है, परन्तु सत्यत्व आच्छादित है, और व्यवहार-रत् स्वरूप भ्रान्ति के आवरण में है । माया-कल्पित-मस्तिष्क जड-पदार्थों से निर्मित और चेतन से संचालित है । उपरोक्त वर्णित माया-ब्रम्ह के समन्वित प्रस्तुतिकरण में, भोज्य-जगत् और भोक्ता-जीव के मध्य क्रिया-प्रतिक्रिया का लोकव्यवहार है । जो भोक्ता जीव, भोज्य-जगत् के भ्रान्ति स्वरूप में लिप्त है, उसे सत्य की जिज्ञासा का कहाँ स्थान हो सकता है । दूसरा भोक्ता जीव, जिसे अनित्यता दु:खदायी प्रतीत होती हैं, जिसे इन्द्रीय-वासनायें बन्धनकारी प्रतीत होती है, उसे सत्य की जिज्ञासा होती है । यह मस्तिष्क को आच्छादित करने वाले मल-विक्षेप-अज्ञान की प्रधानता और विवेक-वैराग्य-श्रद्धा-निष्ठा की प्रधानता के भेद द्वारा सृजित होने वाले भेद है । सत्य के जिज्ञासु को, शास्त्र भ्रान्ति से निवृत्त कर, उसे सत्य का अ-परोक्ष-दर्शन कराते हैं । यह ज्ञान की स्थित है । भ्रान्ति से निवृत्ति है । यह सद्यो मुक्ति है । मोक्ष है । जब तक व्यक्ति देह के अभिमान से बँधा है, अपने अन्त:करण के अभिमान से बँधा है तब तक मान-अपमान, गमना-गमन, पाप-पुण्य, राग-द्वेष, अच्छा-बुरा, स्वर्ग-नरक सभी हैं । सद्यो मुक्ति का अर्थ होता है, उपरोक्त समस्त अभिमानों से मुक्ति, समस्त-अभिमानो से जनित भ्रान्तियों से निवृत्ति है । भ्रान्ति ही भ्रमण है । ..... क्रमश:   

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

साधन-चतुष्टय-सम्पत्ति

चिदाभास

अर्थापत्ति-प्रमाण