सोपान-परिचय-सतत्
शिक्षण-विधि-सोपान
सोपान-परिचय-सतत् सत्य-आत्मा और सत्य-ब्रम्ह यह दो भिन्न तत्व नहीं हैं, अपितु एक ही सत्य के दो नाम हैं । जब एक जीव के विचार में इस अद्वय
सत्य-तत्व का निरूपण किया जाता है, तो इसे आत्मा शब्द द्वारा सम्बोधित किया
जाता है । जब समष्टि के विचार में सत्य-अद्वय-तत्व का निरूपण किया जाता है, तो इसे ब्रम्ह शब्द द्वारा सम्बोधित किया जाता है । उपरोक्त वर्णित
तथ्यात्मक अभिव्यक्ति ही चारो वेदों का सर्वोच्च ज्ञान शिक्षण है । आत्मा अथवा
ब्रम्ह शब्द भी सच्चे अर्थों में उस असंग-निराकार-अनन्त सत्य-तत्व को निरूपित करने
में अक्षम हैं । उस अद्वय सत्य का वास्तविक निरूपण “मौन” होता है । उस
अद्वय सत्य की परिभाषा अथवा अभिव्यक्ति, अ-सम्भव प्रयत्न है । वह अद्वय-सत्य
स्वयं सिद्ध, स्व-प्रकाश है । उसके ज्ञान के लिये किसी
अन्य ज्ञान के आश्रय की अपेक्षा नहीं है । “मैं हूँ” इस ज्ञान को, क्या किसी ने सिखाया है ? यह ज्ञान तो प्रत्येक जीव को जन्म से
होता है । यही आत्म-ज्ञान है । परन्तु लोक-व्यवहार इतने से चलता नहीं है । तो
व्यवहार चलाने में प्रत्येक व्यक्ति “मैं हूँ” के साथ बहुत कुछ और जोडता है
। तो व्यक्ति जितना कुछ भी जोडता है, वह सब अध्यास होता है । शुद्ध चेतन जो कि
अनन्त है, वह लोक-व्यवहार में एक सीमित परिच्छिन्न
जीव में पर्णित होकर रह जाता है । इस सन्सार की समस्त चोट, उपरोक्त वर्णित जीव के ऊपर ही होती हैं । उपरोक्त जीव के साथ जो चेतन
तादात्म्य करके कर्ता और भोक्ता बनता है, वह अहंकार होता है । शास्त्र
माया-कल्पित-जगत् और माया-कल्पित-जीव दोनो का उपदेश करते हैं, और दोनो का निषेध भी करते हैं । निषेध का अभिप्राय होता है, कि वह पारमार्थिक सत्य नहीं हैं । पारमार्थिक-सत्य-असंग-आत्मा उपरोक्त
दोनो से विलक्षण तत्व है, जबकि उपरोक्त दोनो की उत्पत्ति और ज्ञान
शुद्ध-तत्व-आत्मा के आश्रय से ही सम्भव होता है । शुद्ध-आत्मा सत् और असत् दोनो का
प्रकाशक, परस्पर-विरुद्ध-धर्माश्रय, परस्पर-विरुद्ध-ध्रर्माधिष्ठान होते हुये भी उपरोक्त सभी से विलक्षण
तत्व है । आत्मा ज्ञान स्वरूप है । ज्ञान-स्वरूप का बोध, अज्ञान के अधिकरण में बैठ-कर करना अ-सम्भव प्रयत्न है । ज्ञान को ज्ञान
में स्थापित होकर ही बोध किया जा सकता है । ...... क्रमश:
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