माया का लक्षण कार्य-कारण
माया-कल्पित-जगत्-सोपान
माया का लक्षण कार्य-कारण पद हैं, पदार्थ हैं । पद नाम हैं, पदार्थ रूप हैं । यही नाम और रूप मिलकर माया-लोक है । इसी माया लोक में
भोक्ता जीव, भोज्य जगत् के साथ व्यवहार-रत् है ।
उपरोक्त कथित व्यवहार में, भोक्ता जीव प्रत्येक, कार्य रूपी रूप का कारण निर्धारित करता है । यह कार्य-कारण-जगत् है, जिसमें जीव कारण बनता है, रूप उसका कार्य होता है । जीव स-अधिकार
कहता है, कि यह मैंने बनाया है । क्या बनाया है ? वही रूप बनाया है । यही माया है । कार्य भी भ्रान्ति मात्र है । कारण भी
भ्रान्ति मात्र है । फिरभी लोकव्यवहार है । जीव की उत्पत्ति का कारण, उसके पूर्व के संचित पाप-पुण्य का भोग होता है । कारण-शरीर से कार्य
रूपी सूक्ष्म-स्थूल-शरीर उत्पन्न होती है । पाप-पुण्य-कार्य हैं, कारण कर्ता जीव है । यह माया लोक है । उपरोक्त को ही शास्त्र मिथ्या
जगत् कहते हैं । यह कार्य-कारण जगत् का स्वरूप ही माया का तीसरा लक्षण है । .....
क्रमश:
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